वाराणसी ज्ञान पंचायत रविवार, 1 मई 2022, सुबह 8 बजे

विषय : परंपरा की खोज

वाराणसी के अस्सी घाट पर 1 मई 2022 को सुबह 8 बजे से वाराणसी ज्ञान पंचायत का आयोजन हुआ. विषय था ‘परंपरा की खोज’. सन्दर्भ रहा नामवर सिंह की पुस्तक ‘दूसरी परंपरा की खोज’ जिसमें उन्होंने हजारी प्रसाद द्विवेदी के लेखन के मार्फ़त साहित्य में संत परंपरा की भूमिका की मौलिकता उजागर की है. चूँकि 1 मई  मजदूर दिवस के नाम से मनाया जाता है और इसी दिन नामवर सिंह का जन्म दिन भी माना जाता है, यह दिन इस बहस के लिए विशेष उपयुक्त माना गया. संयोगवश हजारी प्रसाद की पुण्यतिथि भी इसी माह की 19 तारीख को पड़ती है. कहने की आवश्यकता नहीं है दोनों का गहरा जुड़ाव वाराणसी से रहा, जहाँ उनकी उपस्थिति को आज भी महसूस किया जाता है.

उगते सूरज के आत्मोत्सर्ग के आवाहन में गंगाजी के किनारे अस्सी घाट पर पीपल के  नीचे बैठकर लोकविद्या सत्संग के पदों की गायकी से ज्ञान पंचायत की शुरुआत हुई. संत वाणी में लोकविद्या दर्शन बिखरा पड़ा है. कबीर के पदों पर आधारित इस  लोकविद्या गायकी में कारीगर समाजों को बड़ा स्थान है. बुनकर, किसान, रंगरेज़, धोबी, लोहार, कलवार, बहेलिया, बनिया, स्त्री आदि समाजों के मूल्यों, जीवन व कार्यों के मार्फ़त ज्ञान और दर्शन की मौलिक स्थापनाओं को सामू भगत, सर्विंद पटेल और युद्धेश ने गा कर सामने लाया. 

लोकविद्या जन आन्दोलन की राष्ट्रीय संयोजक चित्रा जी ने इस बात पर बल दिया कि भारत के लिए मजदूर दिवस का महत्त्व कारीगर दिवस के रूप में ही हो सकता है,  उस कारीगर की ज़िन्दगी पर प्रगाढ़ नज़र डालने के लिए, जो अपना सारा काम अपनी विद्या के बल पर करता है. और जिसे केवल उसके श्रम की आधी-चौथाई मजदूरी मिलती है, उसके ज्ञान का मूल्य तो आँका भी नहीं जाता, भुगतान तो दूर की बात है. अमेरिका के मज़दूरों के  1 मई के महान संघर्ष को लोकविद्या की प्रतिष्ठा के लिए आवश्यक संघर्ष के सन्दर्भ में तब्दील कर दिया जाना चाहिए. लोकविद्या यानि मेहनतकाश वर्गों की ज्ञान परंपरा. इसी में परंपरा की किसी भी खोज के मूल तत्व ढूंढ़े जाने चाहिए. इस भूमि की परम्परा में ज्ञान-विज्ञान और कला के बीच कोई दीवार नहीं खड़ी की गई. उलटे बहुत बार तो दोनों को अलग-अलग पहचानना मुश्किल हो जाता है. रोजमर्रे के कार्यों यानि सामान्य जीवन की गतिविधियों में ललित कला और ज्ञान-विज्ञान दोनों ही व्यापक तौर पर मिश्रित/एकीकृत दिखाई देते हैं. यह परम्परा विभेदीकरण की नहीं बल्कि संश्लेषण की है. यह भी कहा जा सकता है कि यह सत्य के निर्माण और पुनर्निर्माण की परंपरा है.    

स्वराज अभियान के रामजनम संचालन कर रहे थे. उन्होंने शुरू में ही विषय की स्थापना करते हुए परंपरा की खोज के बहुआयामी विस्तार को रेखांकित किया और परम्परा की ओर देखने की उस दृष्टि का आग्रह किया जो स्वराज और स्वदेशी की मौलिकता पहचानने और इनके फौरी महत्त्व को उजागर करने में मदद करे.

आमंत्रित वक्ता के रूप में बोलते हुए प्रगतिशील लेखक संघ के संजय श्रीवास्तव ने नामवर सिंह के बारे में कुछ रोचक तथ्य बताते हुए परंपरा की विविधता की ओर ध्यान आकर्षित किया. विशेषकर यह कहा कि ज्ञान-परंपरा की चर्चा में अक्सर चार्वाक और लोकायत को नज़रंदाज़ कर दिया जाता है. इससे परम्परा की समझ बनाने में खामी रह जाती है. जिस मध्य युगीन भक्ति/ज्ञान/साहित्य परम्परा को हजारी प्रसाद के लेखन ने पुनर्जागृत किया और नामवर सिंह ने बड़ी सफाई से सबको समझाया वह ज्ञान-परंपरा बहुत पुरानी है, बुद्ध और चार्वाक के समय तक तो जाती ही है.

बीएचयू के प्रोफ़ेसर रामाज्ञा शशिधर का उल्लेख विशेषरूप से किया जाना चाहिए. उन्होंने अपने वक्तव्य से पंचायत को विशेषतौर पर समृद्ध किया. यह बताया कि किस तरह हजारी प्रसाद ने भारतीय परंपरा के गर्भ से संतों की वाचिक परंपरा को सामने लाकर रख दिया. उन्होंने इस बात को समझाया कि यूरोप में ज्ञान को सत्ता के रूप में देखा गया जबकि भारत में संवाद, पंचायत और लोक के साथ क्रियात्मक सम्बन्ध में ज्ञान निर्मित और पुनर्निर्मित होता रहा. इस बात का महत्त्व यह कहकर भी बताया कि नामवर सिंह शुरू के कुछ साल तो लिखते रहे लेकिन बाद में सालों घूमते रहे, लोक के बीच जाते रहे और अपनी बात कहते रहे, जिसमें उच्च दर्शन और रोजमर्रे की मनुष्य की ज़रूरतों का बढ़िया समन्वय देखने को मिलता है. परम्परा लोकस्थ होती है और वाचिक होती है यह बात नामवर के जीवन में चरितार्थ होती देखी जा सकती है. ज्ञान परम्परा के पुनरुज्जीवन और संवर्धन का स्थान और तरीका, काशी और पंचायत, एक आशा बांधता है.

एक और महत्वपूर्ण वक्तव्य सुनील सहस्रबुद्धे का हुआ. उन्होंने अपनी बात किसान आन्दोलन से शुरू की और कहा कि किसान इस देश की तर्क परम्परा के वाहक हैं. कोई भी ज्ञान, समझ, कला, संचार सभी कुछ अपनी तर्क की विधा के साथ एकीकृत होता है. उसे उसकी तर्क की विधा से अलग कर दीजिये अथवा तर्क की किसी दूसरी विधा को उस पर फिट करने की कोशिश कीजिये तो वह नष्ट हो जायेगा. आप जो करना चाहते हैं वह नहीं कर पाएंगे. उन्होंने कहा कि परम्परा लोकस्थ ही होती है, जिसतरह लोकविद्या लोकस्थ ही होती है. लोक के बाहर इनका रूप और सार बिलकुल अलग हो जाता है. सूत्र के रूप में समझें तो परम्परा में जानकारियों का भण्डार होता है, मूल्यों की एक व्यवस्था होती है और तर्क की एक विधा होती है, जो सब लोकसम्मत होता है. आप चाहें कि लोकविद्या का भण्डारण कंप्यूटर में कर लें तो यह नहीं हो पायेगा. क्योंकि कंप्यूटर में संयोजन, गति और बदलाव का तर्क अलग है. लोक में यह तर्क अलग है. कंप्यूटर में मूल्यों की व्यवस्था अलग है, अथवा कंप्यूटर मूल्यों के प्रति निरपेक्ष होता है. जबकि लोक में सभी कुछ मूल्यों से निर्देशित होता है. जानकारियों का एक स्थिर भंडारण कंप्यूटर में हो सकता है तथापि परम्परा तो सर्वथा गतिशील होती है और इसीलिए अपने वाचिक रूप में ज्यादा पहचानी जाती है. वाचिक परम्परा अथवा लोकविद्या आम आदमी की तर्कबुद्धि से मेल खाती है. उसी के साथ जीती और संवर्धित होती रहती है.

अंत में प्रेमलताजी ने इस अवसर के लिए लिखी लोक जीवन को समर्पित अपनी  कविता प्रस्तुत की.

ज्ञान, कर्म, कौशल, श्रम अलग कहाँ,  दूध और पानी जैसे घुला-मिला

‘किसान कारीगर रचें नव विहान, आओ, विचारों को एक नयी धार दें.

पंचायत में कई संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की भागीदारी रही. भारतीय किसान यूनियन के लक्ष्मण प्रसाद और कृष्ण कुमार, बुनकर साझा मंच से फ़ज़लुर्रहमान अंसारी, माँ गंगा निषादराज सेवा समिति से हरिश्चंद्र बिन्द, जय गुरुदेव संप्रदाय से अशोक शर्मा. वाराणसी के सामाजिक कार्यकर्त्ता समूह से रविशेखर, प्रेमलताजी और बीएचयू के कुछ छात्र और छात्राएं.

वाराणसी ज्ञान पंचायत एक प्रक्रिया है, जहाँ ज्ञान पर मंथन, चिंतन और जन सुनवाई होती है. इस पंचायत में किसान, कारीगर, प्रोफ़ेसर, स्त्रियाँ, डाक्टर, इंजीनीयर, रिक्शाचालक, अध्यापक, कलाकार सभी के ज्ञान को बराबर सम्मान है. विविध, धर्म, जाति, विचारधारा, और व्यवसाय से जुड़े लोगों को बराबर की मान्यता हैं.

–विद्या आश्रम, सारनाथ

इस वाराणसी ज्ञान पंचायत के निमंत्रण का परचा नीचे दिया है.

वाराणसी ज्ञान पंचायत का निमंत्रण

 1 मई को लोकविद्या प्रतिष्ठा दिवस के रूप में मनाया जाए इस प्रस्ताव के साथ अस्सी घाट पर वाराणसी ज्ञान पंचायत का आयोजन किया जा रहा है. यह दिवस मजदूर दिवस के नाम से मनाया जाता है. लोकविद्या प्रतिष्ठा का मतलब है भारत भूमि की बुनियादी ज्ञान परम्परा की प्रतिष्ठा.

हिंदी साहित्य के दार्शनिक लेखक हजारी प्रसाद ने लोक परम्पराओं को सभ्यता और संस्कृति की बुनियादी परम्परा माना है. इन्हीं के शिष्य नामवरसिंह ने ‘दूसरी परम्परा की खोज’ नाम से एक पुस्तक लिख कर अपने गुरू को श्रद्धांजलि अर्पित की है. संयोग है कि 1 मई नामवर जी का जन्म दिवस है और 19 मई को हजारी प्रसाद जी की पुण्यतिथि है. वाराणसी से इन दोनों ही विद्वानों का गहरा सम्बन्ध रहा. लोकविद्या की प्रतिष्ठा के रास्तों की खोज व निर्माण के संकल्प के लिए यह दिवस उचित ही है.

आज दुनिया के सभी देश एक बहुत बड़ी उथल-पुथल के दौर से गुज़र रहे हैं. 1 मई का दिवस 1880 में अमेरिका में कारखानों में मज़दूरों के काम के घंटे घटाकर 8 घंटे किये जाने की मांग के संघर्ष की याद में मनाया जाता है. यह औद्योगिक युग के ज़माने की बात है. आज सूचना युग में उत्पादन बड़े-बड़े कारखानों में नहीं होता. पूँजी का प्रकार, उत्पादन के तरीके और शोषण का रूप सभी कुछ बदल गया है. मनुष्य के श्रम, ज्ञान, विरासत और संसाधन, सभी के मूल्य को हड़पने की व्यवस्थाएं आकार ले चुकी हैं. मुनाफा उठाने के स्थान कारखानों की जगह बाज़ार बनाये गए हैं. अब औद्योगिक युग में किसानी और कारीगरी को तबाह कर कारखानों में काम करने के लिए जो सस्ते मज़दूर पैदा किये गए थे उन्हें वापस समाज में फेंक दिया गया और उन्हें वित्तीय पूँजी के जाल में फांस कर घर पर ही परिवार के साथ या छोटी-छोटी इकाइयों में काम के लिए मजबूर किया गया. इस प्रक्रिया में औद्योगिक युग का मज़दूर आज कारीगर में बदल गया. लेकिन यह कारीगर आज की दुनिया का कारीगर है न कि औद्योगिक युग के पहले का.

आज का यह कारीगर छोटी पूँजी के प्रबंधन का ज्ञानी है. यह छोटा किसान है, बुनकर, लोहार, प्लंबर है, ट्रक-मोटर का ड्राइवर है या इनके मरम्मत और रखरखाव के कार्य करता है, यह ठेले-पटरी-गुमटी या छोटी दूकान करने वाला है, कंप्यूटर पर टाइप करता है या मरम्मत और रखरखाव करता है, यह मल्लाह, धोबी, या सफाई कर्मी हैं, कुम्हार, वनवासी और बढई है, ऑटो-रिक्शा चालक है, आदि. ये सब मिलकर इस देश की आबादी का लगभग 80 फीसदी है. यह विशाल कारीगर-समाज सर्वहारा नहीं है. इन्हें मज़दूर नहीं कहा जा सकता. इन्हें असंगठित क्षेत्र का कर्मी या अकुशल कर्मी कहना भी गलत होगा.

हम कहते हैं कि ये विविध समाजों के 80 फीसदी लोग ही आज लोकविद्या परम्परा के वाहक हैं. हजारी प्रसाद जी ने इन्हें ही बुनियादी परम्परा के वाहक कहा है. ये ही नामवर जी की ‘दूसरी परंपरा’ के नाम से चिन्हित किये गए हैं. 1 मई का दिवस इन्हीं के ज्ञान की प्रतिष्ठा का दिवस होना चाहिए. इनके ज्ञान की प्रतिष्ठा इन्हें ही नहीं बल्कि पूरे समाज को खुशहाली, भाईचारा और न्याय के पथ पर ला सकेगी.

इन सभी समाजों के ज्ञान में इस न्याय-पथ के निर्माण के भ्रूण भी हैं. दुनिया के एक्वाडोर, बोलीविया जैसे देशों में इन्हीं समाजों के ज्ञान-भ्रूणों को अब कोंपलें फूट पड़ी हैं. आज का दिवस हम इसी दिशा में चिंतन की शुरुआत करने के लिए जुटे हैं.

–वाराणसी ज्ञान पंचायत की ओर से

लोकविद्या जन आन्दोलन, भारतीय किसान यूनियन(अराजनीतिक), स्वराज अभियान,

बुनकर साझा मंच, माँ गंगाजी निषादराज सेवा समिति

रपट : देश की वर्तमान परिस्थिति और भविष्य

वाराणसी में देश की वर्तमान परिस्थिति और भविष्य पर 29 फरवरी 2020 को विद्या आश्रम, सारनाथ और 1 मार्च 2020 को दर्शन अखाड़ा, राजघाट में एक राजनैतिक और दार्शनिक वार्ता का आयोजन किया गया. देश भर में पिछले दो-तीन महीनों से CAA/NRC/NPR के विरोध में हो रही गतिविधियों की पृष्ठभूमि में और हम कौन हैं और किधर चले विषय पर शुरू हुई वार्ताओं के सन्दर्भ में समाज के कई तबकों से और देश भर से आये लोगों ने आगे के रास्ते और एक सार्थक परिवर्तन की संभावना पर अपने विचार रखे. लगभग 75 व्यक्तियों की भागीदारी में यह संवाद हुआ. वार्ता में 25 से 70 के आस पास के आयुवर्ग के लोग शामिल रहे.

यह महसूस किया गया कि सरकार के वर्तमान कदम और सार्वजनिक रूप से अभिव्यक्त विरोध दोनों ही पिछले समय से नाता तोड़ते नज़र आते हैं और एक राष्ट्रीय समाज के रूप में हम कौन हैं और किधर जाना चाहते हैं? यह सवाल उठ खड़ा हुआ है. वार्ता में शुरू से यह आग्रह रहा कि इसकी समझ बनाने के लिए उच्च शिक्षा संस्थानों और समाज वैज्ञानिकों से मार्गदर्शन लेने की जगह यह ज्यादा महत्वपूर्ण होगा कि हम इसे सामान्य लोगों, उनका जीवन और उनके विचारों के राजनीतिक-दार्शनिक सन्दर्भ में अवस्थित करने का प्रयास करें.

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मंजू सुन्दरम जी का विशेष व्याख्यान

सुरेश और सिवरामकृष्णन ने बंगलुरु में चल रहे ‘पवित्र आर्थिकी सत्याग्रह’ की बात के साथ चर्चा शुरू की. यह सत्याग्रह हाथ के काम और उन्हें करने वालों के पक्ष में एक आर्थिक-सामाजिक आन्दोलन है. इस आन्दोलन ने सीएए/एनआरसी के विरोध का समर्थन किया है तथा उसमें एक महत्वपूर्ण पक्ष जोड़ने का प्रयास किया है. देश में चल रहे सीएए/एनआरसी के विरोध के आन्दोलन के सन्दर्भ में कई भागीदारों ने इस बात पर जोर दिया कि वर्तमान सरकार हिंदुत्व की वैचारिकी से प्रभावित होकर एक विनाशकारी रास्ता अपना रही है और इस देश में सभी पंथों और धर्मों के लोगों की आपसी सौहार्द के जीवन की जो परंपरा है उसे ख़त्म करने पर तुली हुई है. कई तबकों के लोग यह सोचते हैं कि सी.ए.ए., एन.आर.सी. और एन.पी.आर. का पैकज उनके अस्तित्व के लिए ही खतरा है. इसलिए इसका विरोध जिन लोगों ने और जितनी मजबूती से खड़ा किया है उसकी उम्मीद शायद किसी को नहीं थी. यह किसी प्रकार के “वाद” से बंधा हुआ नहीं है और इसने देशप्रेम की नयी परिभाषा दी है. यह मुख्यधारा के वर्तमान पक्षों को पीछे छोड़ आया है. ख़ास कर शाहीन बाग़ की महिलाओं ने यह दिखा दिया है कि जो लोग मुस्लिम समाज की स्त्रियों को सार्वजनिक मंच से कटा हुआ समझते हैं वे कितने ग़लत हैं. इन महिलाओं ने न सिर्फ राजनैतिक पक्षों को बल्कि अपने समाज के लीडरों को भी पीछे छोड़ दिया है. उनकी शक्ति के स्रोत क्या हैं यह समझने की ज़रुरत है. क्या यह एक नई प्रेरणा का स्रोत है?

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स्वराज विद्यापीठ, इलाहाबाद और आज़ादी बचाओ आन्दोलन के मनोज त्यागी

वक्ताओं ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि यह आंदोलन केवल मुसलमानों का नहीं है. ये नए कानून और सरकार के प्रयास सिर्फ मुसलमान समाज के लिए ही नहीं, बल्कि देश के तमाम किसानों, कारीगरों, आदिवासियों, स्त्रियों और छोटे धंधे वालों के लिए समस्या पैदा करते हैं. इन लोगों के पास अथाह ज्ञान, विद्या और हुनर तो है, लेकिन कागज़ नहीं हैं. इस लिए “कागज़ नहीं दिखाएंगे” का नारा इस लोकविद्याधारी समाज का नारा है. इस आंदोलन के मार्फ़त समाज सरकार से कह रहा  है “हमारे ही देश से हमें बेदखल करने का विचार त्याग दें”. यह बात भी सामने आयी कि सीएए  के मुद्दे तक सीमित न रह कर इस आंदोलन को सरकार की अन्य नीतियों जैसे नोटबंदी, जीएसटी आदि की पार्श्वभूमि में देखा जाए.

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कानपूर से मज़दूरों के बीच कार्य रत                                    स्वराज अभियान के राम जनम

मनाली चक्रवर्ती

वार्ता में यह बात भी उभर कर आयी कि हिंदुत्ववादी सोच का मुक़ाबला करने और देश के विविध सम्प्रदायों के बीच भाईचारे के सम्बन्ध बनाने और अधिक मजबूत करने के लिए जिन मूल्यों और व्यवहार के तरीकों की ज़रुरत है, वह हमें सामान्य जीवन में और लोक परम्पराओं तथा लोकस्मृति में मिलते हैं. भारत में ऐसे भाईचारे की परम्परा  है जिसे  हिन्दुत्ववादी सोच नकारती है. लेकिन अगर हम महाभारत से कुछ सीखते हैं तो वह यह कि जब घर ही में युद्ध होता है तो किसी की जीत नहीं होती, सबकी हार होती है. वक्ताओं ने कहा की आर्थिक विषमताओं, बेरोज़गारी, और कॉर्पोरेट सेक्टर के फायदे  के लिए बनी आर्थिक नीतियों को भी चुनौती देने की ज़रुरत है. ये ऐसे हालात पैदा करती हैं जिनमें युवा नफरत और हिंसा की ओर गुमराह किये जाते हैं. यह एक लम्बी लड़ाई है.

यह भी कहा गया कि केवल संवैधानिक मूल्यों को पकड़कर देश बहुत दूर तक नहीं जा सकता. जिस उदारतावाद और प्रगतिशीलता से हम परिचित हैं वह अब और आगे देश को किसी नए रास्ते पर ले जा सकेगा इसकी संभावना नहीं दिखाई देती. उदार और सकारात्मक मूल्यों के स्रोत के रूप में हमें सामान्य लोगों के बीच प्रचलित परम्पराओं की ओर देखने का मन बनाना चाहिए, खासकर संत-परंपरा की ओर. केवल इतना ही नहीं बल्कि वर्तमान आन्दोलन में कलाकारों की भूमिका यह कहती नज़र आती है कि देश और दुनिया को कला दर्शन की दृष्टि से देखना ज़रूरी है. इस सन्दर्भ में श्रीमती मंजू सुन्दरम जी का एक विशेष व्याख्यान रखा गया था. श्रीमती मंजू सुन्दरम कला और भाषा के क्षेत्रों में विशेष दखल रखने वाली एक दार्शनिक विदुषी हैं. वे उपस्थित लोगों को एक ऐसी कला की दुनिया में ले गईं जहाँ से बातों को समझने और देखने के लिए प्रचलित राजनैतिक और आर्थिक श्रेणियों से अलग वैचारिक श्रेणियों के बीच खुद को ले जाना पड़ता है. ‘दर्शन’, ‘भाव’ और ‘मर्यादा’ की बातें करते हुए उस वैचारिक दुनिया का निर्माण किया जिसमें विश्लेषणात्मक तरीके का महत्त्व तो है लेकिन औरों की तरह ही, उनसे अधिक नहीं. पूरी सुबह राजनैतिक दृष्टिकोण से बात चल रही थी और कला की दुनिया का यह दखल ताज़ी हवा के एक झोंके की तरह था तथा वार्ता को एक बड़ी दुनिया में ले गया. इनके तुरत बाद आते हुए राहुल राज ने विश्लेषणात्मक वैचारिकी के द्वंद्वों के ऊपर उठने में दर्शन की भूमिका को रेखांकित किया. अंत में चित्रा सहस्रबुद्धे ने कहा कि रचनात्मक पहल के लिए जिस सार्वजनिक और सबको शामिल करने वाले संवाद की ज़रूरत है उसे बनाने के लिए एक ज्ञान आन्दोलन की ज़रूरत है, एक ऐसे ज्ञान आन्दोलन की जिसमें लोकविद्या और नैतिकता को अहम् स्थान मिलता हो. इसे हम बौद्धिक सत्याग्रह का नाम दे सकते हैं, जिसमें कला दर्शन और संत वाणी की बड़ी भूमिका है.

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लोकविद्या के दावे का गीत गाते लोकविद्या जन आन्दोलन के कार्यकर्त्ता

कार्यक्रम  के दूसरे दिन लोकतंत्रसमाजवादरामराज्य, और स्वराज पर गंगाजी के किनारे दर्शन अखाडा में वार्ता हुई. यहाँ उपस्थित लोगों ने इन अवधारणाओं और व्यवस्थाओं पर अपनी-अपनी समझ रखी. लगभग 50 लोगों की उपस्थिति में बोलने वाले अधिकांश लोगों ने जीवन और समाज के संगठन के रूप में स्वराज के प्रति अपनी प्राथमिकता दर्शाई. लोकविद्या जन आन्दोलन के मैसूर से आये बी. कृष्णराजुलु ने बैठक की शुरुआत करते हुए यह कहा कि आज सभी देशों में लोकतंत्र एक दलीय तानाशाही में बदल रहा है. उन्होंने इस कथन के समर्थन में कई देशों के उदाहरण दिए, जहाँ अलग-अलग विचारधाराओं के दल राज कर रहे हैं. IISER मोहाली  से आये वैभव ने बाज़ार की नकारात्मक भूमिका को रेखांकित किया और कहा कि इस बाज़ार की व्यवस्था समझे और बदले बगैर मानव हित में आगे बढ़ना संभव नहीं है. स्वराज विद्यापीठ, इलाहाबाद के मनोज त्यागी ने कहा कि स्वराज की ओर बढ़ने में सबसे बड़ी बाधा कारपोरेशन हैं. उन्होंने स्वराज विद्यापीठ द्वारा ‘लोक राजनीति मंच’, ‘जन-संसद’ और ‘छोटे उद्यम’ के रूप में किये गए प्रयोगों के बारे में बताया. स्वराज अभियान के राम जनम ने कहा कि ‘एक व्यक्ति-एक वोट’ की वास्तविकता और वैचारिकी दोनों की ही सीमाएं हैं और स्वराज की ओर बढ़ने के लिए इनसे आगे बढ़ना होगा. भारतीय किसान यूनियन के लक्ष्मण प्रसाद ने उदाहरणों के साथ यह बताया कि छोटी से छोटी समस्या हल करने में वर्तमान सरकारी तंत्र पूरी तरह अक्षम है और यह कि स्थानीय लोगों की पहल पर ही कुछ काम हो पाता है. इसे संगठन का रूप देने से स्वराज की ओर बढ़ने के कदम तैयार होते हैं. विद्या आश्रम की चित्रा सहस्रबुद्धे ने स्वराज परंपरा की बात की. उन्होंने कहा कि स्वराज का विचार बनाने में और उसके व्यवहार के सिद्धांत समझने के लिए गाँधी के अलावा बसवन्ना के कल्याण राज्य, रविदास के बेगमपुरा, कबीर की अमरपुरी, अंग्रेजों के आने से पहले के ‘भाईचारा गाँव’ और आज़ादी के पहले औंध, मिरज और कुछ और स्थानों पर स्वराज के जो प्रयोग हुए उन सब पर ध्यान देना चाहिए. अविनाश झा ने कहा कि लोकतंत्र और स्वराज के बीच का अंतर ‘स्वनियंत्रित’ और ‘स्वगठित’ इन दोनों के अंतर से समझा जा सकता है. स्वनियंत्रित व्यवस्था बाहर से दिए हुए सिद्धांत के तहत चलती है. मगर एक स्वगठित व्यवस्था अपने अंदर ही अपने संगठन के मूल्यों का निर्माण करती है. स्वराज एक स्वगठित व्यवस्था की ओर इशारा करता है.

वार्ता सभा का समापन करते हुए उन सब लोगों के प्रति आभार व्यक्त किया गया जो भाग लेने आये थे और जिन्होंने इस वार्ता के लिए आवश्यक सारे इंतजाम किये.

इस दो दिन के संवाद के लिए कई लोगों ने रहने-खाने और बातचीत के स्थान की व्यवस्था की. वे हैं – गोरखनाथ, फ़िरोज़ खान, मु. अलीम, नीरजा, आरती कुमारी, अंजू देवी, कमलेश, पप्पू, मल्लू, चम्पादेवी, रोहित, कुलसुमबानो, विवेक और प्रिंस.

[ इस संवाद में कई लोग बोले और कई के नाम इस छोटी सी रिपोर्ट में नहीं आये हैं. जो लोग बोले वे हैं—सुनील सहस्रबुद्धे, ज.क.सुरेश, जी.सिवरामकृष्णन, गिरीश सहस्रबुद्धे, वैभव वैश्य, राहुल राज, हरिश्चंद बिंद, मनोज त्यागी, मनाली चक्रवर्ती, मुनीज़ा खान, पारमिता, नीति भाई, संदीपा, अवधेश कुमार, लक्ष्मीचंद दुबे, फ़ज़लुर्रहमान अंसारी, एहसान अली, ब्रिकेश यादव, मु. अहमद, अमित बसोले, निमिता कुलकर्णी, अरुण चौबे, प्रेमलता सिंह, आरती कुमारी, वीणा देवस्थली, राहुल वर्मन, राम जनम, अभिजित मित्रा, चित्रा सहस्रबुद्धे, अविनाश झा, बी. कृष्णराजुलु. कुछ ऐसे विचार ज़रूर होंगे जो व्यक्त किये गए लेकिन इस रिपोर्ट में नहीं हैं. इसका कारण केवल यह है कि हमारे पास विस्तार से लिखित ब्यौरा नहीं हैं. पूरी वार्ता का एक विडियो बनाया गया है लेकिन अभी हम नहीं जानते कि उसका क्या इस्तेमाल किया जाय. सुझावों का स्वागत है.]

विद्या आश्रम

 

 

 

 

निमंत्रण देश की वर्तमान परिस्थिति और भविष्य

निमंत्रण

देश की वर्तमान परिस्थिति और भविष्य

29 फरवरी-1मार्च 2020

विद्या आश्रम, वाराणसी

साथियों,

विद्या आश्रम ‘देश की वर्तमान परिस्थिति और भविष्य’ इस विषय पर एक वार्ता आयोजित करने जा रहा है. तारीखें होंगी 29 फरवरी और 1 मार्च 2020. आप इस वार्ता में भाग लेने के लिए आमंत्रित हैं. कृपया आयें और अपने विचारों तथा अनुभवों से वार्ता को समृद्ध बनायें.

आप अपने साथ अपने साथियों को भी लेकर आ सकते हैं. कृपया इसके लिए समय निकालें और आनेजाने के लिए आवश्यक संसाधनों का इंतजाम करें. आश्रम सभी के रहनेखाने का इंतजाम करेगा. हम लोग विद्या आश्रम, वाराणसी के सारनाथ परिसर में बैठेंगे. यहीं भोजन की व्यवस्था होगी और आसपास ही रहने की व्यवस्था भी. वार्ता 29 फरवरी को सुबह 11.00 बजे शुरू होगी.

सीएए, एनआरसी और एनपीआर के खिलाफ संघर्ष इतने बढ़ जायेंगे इसकी उम्मीद कम ही लोगों को रही होगी. और अब सरकार का रुख क्या होगा, ये संघर्ष किधर जायेंगे इसका अनुमान शायद किसी को नहीं है. फरवरी अंत में जब हम लोग बात करने बैठेंगे तब तक न जाने क्याक्या हो चुका होगा. राष्ट्र को एक दो राहे पर खड़ा बताया जा रहा है, धर्मनिरपेक्षता या हिंदुत्व का रास्ता, वाम और दक्षिणपंथ का संघर्ष, उदारवादी और तानाशाहीपरक विचारों के बीच होड़ तथा लोकतांत्रिक या अधिनायकवादी व्यवस्थाओं के प्रति आग्रह के रूप में चर्चायें हैं, लेकिन यह एक जाल में फंसने जैसी बात नज़र आती है. क्योंकि इन मोटे तौर पर दो रास्तों में आपस में बड़ी समानतायें हैं. ज्ञान, विकास, और आर्थिकी के सवालों पर ये दो रास्ते एक दूसरे से बहुत भिन्न नहीं हैं. इसलिये सारी बहस इनके अंतर्गत सिमट जाये तो वर्तमान संघर्षों के आधारभूत बड़े और गहरे सवाल सामने नहीं आ पाते. व्यापक जनता बहस के बाहर हो जाती है और शासक वर्गों के बीच के अंतर्विरोध ही सारी बहस पर छा जाते हैं. विश्वविद्यालय परिसरों के छात्रसंघर्ष और खुले स्थानों पर होने वाले संघर्ष, राष्ट्र और राष्ट्रीयता के नये दावों के साथ आये हैं. इसके चलते राष्ट्र के विचार में और राष्ट्र निर्माण के तौरतरीकों में नये विचार आयेंगे इसकी उम्मीद की जा सकती है. यह बुनियादी तौर पर एक नई परिस्थिति है.

सार्वजनिक स्थलों पर मुसलमान महिलाओं ने अपने धरनों के मार्फ़त अपना दर्द और वैचारिक स्पष्टता बड़े साहस, सब्र और कल्पनाशीलता से अभिव्यक्त की है. महिला नेतृत्व की नई मिसाल भी पेश की है. छात्रछात्राओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं व कलाकारों ने अपने संघर्षों में बड़ी कल्पनाशीलता, वैचारिक स्पष्टता, हिम्मत और दर्द का परिचय दिया है. इन दोनों को थोडा ध्यान से एक साथ देखें तो वे केवल राष्ट्र ही नहीं बल्कि सभ्यता की एक नई किताब की प्रस्तावना लिखते नज़र आते हैं.

प्रस्तावित वार्ता किन्हीं भी वैचारिक बन्धनों से अपने को मुक्त रखेगी. लोग, सामान्य लोग, उनका ज्ञान और उनकी दुनिया को वार्ता में उचित व महत्वपूर्ण स्थान देने का प्रयास होगा. ज्ञान की राजनीति’ और ‘लोकराजनीति’ जैसे नाम ऐसे प्रयासों को दिए जा रहे है.

विद्या आश्रम,

सारनाथ, वाराणसी

vidyaashram@gmail.com

Vidyaashram.org

संत रविदास जयंती के अवसर पर ज्ञान-वार्ता

9 फरवरी को रविदास जयंती है। रविदास जी के जन्म स्थान बनारस में इस दिन बहुत बड़े-बड़े उत्सव होते हैं। इस महान संत की स्मृति में उनके दर्शन पर चर्चा के लिए दर्शन अखाड़े पर 4 फरवरी को लगभग 30 व्यक्ति एकत्र हुये. संत रविदास जी के निम्नलिखित पद को चर्चा में रखा गया था. ज़ाहिर है चर्चा उसी तक सीमित नहीं रही.

नामहि पूजा कहाँ चढ़ाऊँ, फल अरु फूल अनुपम न पाऊँ l

दूधत बछरयो थनहु जुठारयो, पुहुप भँवर, जल मीन बिगारयो ll

मलयागिरि बांधियो भुजंगा, विष अमृत बसइ इक संगा l

मनहि पूजा, मनहि धूप, मनहि से सेऊँ सहज सरूप ll

तोडूं न पाती, पूजूं न देवा, सहज समाधि करूं हरी सेवा l

पूजा अरचा न जानूं तोरी, कह ‘रैदास’ कौन गति मोरी ll

1. Ravidas Jayati Darshan aakhada

राजकुमार के नेतृत्व में सरायमोहना गाँव की मंडली रविदास पद गाते हुए

वार्ता की शुरुआत राजकुमार के नेतृत्व में सरायमोहना गाँव की रविदास गायक मण्डली के सुन्दर भजनों से हुई. गुरु रविदास जन्मस्थान मंदिर, सीरगोबर्धनपुर, वाराणसी के आचार्य भारत भूषण दास ने संत रविदास के आध्यात्मिक दर्शन को विस्तार से रखा. मध्ययुगीन भारत के इतिहासकार डॉ. मोहम्मद आरिफ ने वर्तमान राजनीतिक एवं सामाजिक विषमता के सन्दर्भ में संत रविदास के दर्शन के महत्व को अनेक उद्धरण और पदों का ज़िक्र करते हुए सामने लाया. ज्ञान की दुनिया में विश्वविद्यालय के दब-दबे को चुनौती देने में रविदास दर्शन का महत्व विद्या आश्रम की समन्वयक डॉ. चित्रा सहस्रबुद्धे ने अपने वक्तव्य में सामने रखा। सभा के सह अध्यक्ष सतीश कुमार उर्फ़ फगुनीराम-व्यवस्थापक संत रविदास मंदिर, राजघाट, ने वार्ता के लिए दिए गये पद में उजागर भाव को रस्मों का विरोध और ईश्वर से सीधे संबंध के रूप में व्याख्या की.

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सुनील सहस्रबुद्धे ने अपने अध्यक्षीय संबोधन में कहा कि भारत की दार्शनिक परंपरा में संतों का बहुत बड़ा योगदान रहा है लेकिन चूंकि विश्वविद्यालय इसका अवमूल्यन करते हैं इसलिये दर्शन अखाड़े ने इसके न्यायोचित स्थान के लिए अभियान चलाया है.

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समय अभाव के कारण गोष्ठी में आये व्यक्तियों में प्रेमलता सिंह, नूर फातमा, शीलम झा,एहसान अली,  प्रवाल सिंह, महेंद्र प्रसाद, राजकुमार, लक्ष्मण प्रसाद जैसे कई ज्ञानी व्यक्तियों को बोलने का समय नहीं मिल पाया.

गोष्ठी के अंत में आमंत्रित वक्ताओं और गायक मंडली के सदस्यों को एक गमछा व साहित्य देकर सम्मानित किया गया. गोष्ठी के स्थान पर ही तिलमापुर के पंकज कुमार मौर्य ने वहां संत साहित्य की कुछ पुस्तकों को प्रदर्शन के लिए रखा.

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आरती ने इस ज्ञान-वार्ता  में आये सभी भागीदारों का  स्वागत किया और दर्शन अखाड़े के व्यवस्थापक गोरखनाथ ने सबके प्रति आभार व्यक्त करते हुये गोष्ठी का समापन किया और सभी ने जलपान किया.

रविदास जयंती के अवसर पर दर्शन अखाड़े पर ज्ञान-वार्ता

दर्शन अखाड़ा
आमंत्रण
रविदास जयंती के अवसर पर दर्शन अखाड़े पर ज्ञान-वार्ता
दिन : मंगलवार, 4 फरवरी, 2020 समय : दोपहर 3.00 बजे से
स्थान : दर्शन अखाड़ा, ए 11/13, नया महादेव, राजघाट, वाराणसी

दिनांक 9 फरवरी को रविदास जयंती है. इसे ध्यान में रखते हुए 4 फरवरी को दोपहर 3 बजे दर्शन अखाड़ा में इस महान संत के जीवन और दर्शन पर एक चर्चा रखी गई है. नीचे उनका ज्ञान-सन्देश का एक पद दिया जा रहा है. इसके सन्दर्भ में बात की जायेगी.

नामहि पूजा कहाँ चढ़ाऊँ, फल अरु फूल अनुपम न पाऊँ l
दूधत बछरयो थनहु जुठारयो, पुहुप भँवर, जल मीन बिगारयो ll
मलयागिरि बांधियो भुजंगा, विष अमृत बसइ इक संगा l
मनहि पूजा, मनहि धूप, मनहि से सेऊँ सहज सरूप ll
तोडूं न पाती, पूजूं न देवा, सहज समाधि करूं हरी सेवा l
पूजा अरचा न जानूं तोरी, कह ‘रैदास’ कौन गति मोरी ll

क्या सामान्य लोगों के ज्ञान और जीवन की प्रतिष्ठा का सन्देश इसमें है? आज के सन्दर्भ में इससे मिलने वाली सीख पर चर्चा होगी.
इस वार्ता में पहले तीन व्यक्ति अपनी बात रखेंगे फिर और लोग बोलेंगे.
वक्ता
• डा. चित्रा सहस्रबुद्धे, समन्वयक विद्या आश्रम, सारनाथ, वाराणसी
• आचार्य भारतभूषण दास, गुरु रविदास जन्मस्थान मंदिर, सीरगोवर्धनपुर, वाराणसी
• डा. मोहम्मद आरिफ, मध्ययुगीन भारत के विद्वान इतिहासकार.

वार्ता की शुरुआत सरायमोहाना, वाराणसी की रविदास भजन मंडली के गायन से होगी. इस ज्ञान-वार्ता में आप सादर आमंत्रित हैं, अवश्य आयें.

सुनील सहस्रबुद्धे ( 9839275124)
गोरखनाथ ( 9450542636)

 

निमंत्रण : विद्या आश्रम में गंगा आन्दोलन पर वार्ता

गंगा आन्दोलन पर वार्ता

 

दिन : गुरुवार, 12 दिसम्बर 2019

समय : दोपहर 2 बजे 

मुख्य वक्ता 

संदीप पाण्डेय (सामाजिक कार्यकर्त्ता ) और हरिश्चंद्र बिंद (राष्ट्रीय सचिव, माँ गंगा निषादराज सेवा समिति) 


विद्या आश्रम पर 12 दिसंबर 2019 को दोपहर 2 बजे ‘निर्मल-अविरल गंगा’ आन्दोलन पर वार्ता रखी गई है. संदीप पाण्डेय अपनी बात रखेंगे. हरिश्चंद्र बिंद भी अपनी बात रखने आ रहे हैं. आप अपनी बात रखें इसके लिए हम आपको आमंत्रित करते हैं.

हरिद्वार के मातरु सदन के सन्यासी गंगाजी में अवैध खनन के विरोध में और निर्मल-अविरल गंगा के पक्ष में लगातार प्राणाहुति दे रहे हैं. संदीप भाई मात्रि सदन के साथ इस गंगा आन्दोलन में सक्रिय हैं. उन्होंने इस विषय पर एक पुस्तक बनाई है, जो जल्दी ही छपेगी. फ़िलहाल अंग्रेजी में है, नाम है – Tradition of Saints Making Sacrifices for Ganga. हिंदी में भी जल्दी ही बनेगी. आप में से कई इस विषय पर सोचते हैं और आन्दोलन के पक्ष में सहयोग की भूमिका में रहे हैं. 


जैसा कि आप समझते हैं गंगा आन्दोलन एक समग्र आन्दोलन है. बड़ी तादाद में लोगों की जीविका का आन्दोलन है, जीवन मूल्यों का आन्दोलन है, पर्यावरण-पारिस्थितिकी संतुलन का आन्दोलन है, आर्थिक-सामाजिक संरचना में दखल का आन्दोलन है और विद्या की अपनी परम्पराओं के प्रति सम्मान का आन्दोलन है.


12 दिसम्बर की दोपहर संरक्षित कर लें और इस वार्ता के लिए विद्या आश्रम, सारनाथ अवश्य आयें. वार्ता समय से शुरू होगी. दोपहर बाद लोगों को कहीं-कहीं जाना है.


विद्या आश्रम 

त्यौहार और जीवनमूल्य

साल भर के त्यौहारों पर नज़र डालें तो बहुत से त्यौहार तो ऐसे हैं जो प्रकृति से हमारे सम्बन्ध को दृढ़ करते हैं जैसे संक्रांत, लोढ़ी, पोंगल, वसंत पंचमी, नाग पंचमी, रंगभरी एकादशी, गंगा दशहरा, गुरू पूर्णिमा, डाला छठ, शरद पूर्णिमा आदि। हरतालिका, जिउतिया, नवरात्र आदि जैसे त्यौहार प्रजनन-पालन-पोषण से जुड़े बताये जाते हैं। प्रत्येक अमावस्या और पूर्णिमा, चन्द्र व सूर्य ग्रहण स्नान-दान के माने जाते हैं। कुछ त्यौहार देवताओं या महान संतों के नाम से होते हैं। इन सभी त्यौहारों का सम्बन्ध भारत की दर्शन परम्पराओं से रहा है। दूसरी तरफ कुछ त्यौहार ऐसे हैं जो किसी के वध के जश्न हैं, जैसे होलिका दहन, नरकासुर वध (नरक चतुर्दशी), महिषासुर वध (दुर्गा), रावण वध (दशहरा), आदि। भारत में ये त्यौहार आजादी के बाद ही सार्वजनिक तौर पर मनाये जाने लगे हैं और इन्हें ही भारत के प्रमुख त्यौहारों में गिनाया जाने लगा है। क्या किसी के वध (चाहे वह दुश्मन हो) का जश्न मनाने वाली संस्कृति महान हो सकती है? क्या हमें अपने त्यौहारों पर मनन करने की जरूरत नही है?

विद्या आश्रम पर 29 अक्टूबर को दोपहर 3 बजे से ‘त्यौहार और जीवन मूल्य’ विषय पर गोष्ठी रखी गई थी।

सामाजिक कार्यकर्ता, किसान और कारीगरों के मिलेजुले इस समूह (लगभग 50 की संख्या) में हुई इस चर्चा की शुरुआत हुई।

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स्वराज अभियान के रामजनम की अध्यक्षता में हुई इस गोष्ठी में भारतीय किसान यूनियन के लक्ष्मण प्रसाद ने कहा कि आज त्यौहार सामान्य जन के लिए आनंद नही बल्कि एक संकट के रूप में आते हैं, इन पर बाजार और राजनीति का स्पष्ट कब्ज़ा देखा जा सकता है। कमाई कुछ नही और त्यौहारों में मौज-मस्ती और चकाचौंध का प्रदर्शन प्रमुख स्थान लेते जा रहे हैं। इन त्यौहारों के मार्फत राजनीतिक दबाव हमें पाखंडी बनाने के जाल बुन रहे हैं। ऐसे में त्यौहार कैसे मनाये जाएं इस पर विचार करना आवश्यक है। अध्यापक शिवमूरत ने त्यौहारों को बाजार की गिरफ्त से छुड़ाने के लिए एक आंदोलन की आवश्यकता को रखा। लोकविद्या आंदोलन की प्रेमलता सिंह ने कहा कि त्यौहार साथ-साथ जीने के लिए होते हैं, साथ-साथ समृद्ध होने का संदेश देते हैं। ये समाज में उल्लास व रचनात्मकता के स्रोत हैं और समाज के कल्याण के लिए हैं। वध का जश्न मनाने वाले त्यौहार समाज में आक्रामकता और बदले की भावना को पैदा व मज़बूत करते हैं। इन्हें नया रूप देना चाहिए।

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पारमिता ने अपने गांव का उदाहरण देते हुए कहा कि गांव में रामलीला होती थी लेकिन रावण का पुतला नही जलाया जाता था। पुतला जलाना यह शहरी रिवाज़ है। कारीगर नज़रिया के Iएहसान अली ने कहा कि त्यौहार इबादत के लिए है, ख़ुदा से सही राह दिखाने की गुजारिश है, ये अध्यात्म है। इसमें किसी को मारने का जश्न या बदला लेने की बात के लिए जगह कहाँ है? मोहम्मद अहमद ने कहा कि आज के दिन हम मोहर्रम के बाद पचासा मनाते हैं और इस दिन शहर से तलवार चलाते और अन्य शस्त्रों से लैस होकर हज़ारों की संख्या में लोग शहर के बीच से जूलूस निकालते हैं। यह त्यौहार भी वध के बदला लेने की बात को दृढ़ करता प्रतीत होता है। हम इसे ठीक नही मानते। हज़ार वर्ष पहले हुई वध की घटना का बदला आज क्यों ? गुलज़ार भाई ने इस बात का समर्थन करते हुए कहा कि त्यौहार राजनीति के हथियार और बाजार के गुलाम न बने इस पर सोच बनाने की ज़रूरत है। विनोद कुमार ने कहा कि त्यौहारों को खेलों से जोड़ने के प्रयास हों तो विध्वंसकारी प्रवृत्तियों पर काबू करने का एक रास्ता खुलेगा।
काशी विद्यापीठ के सांख्यिकी विभाग के अध्यापक रमन ने कहा कि हम बचपन से रामलीला देखते हुए बड़े हुए हैं, अब इसके बारे में जो नया विचार आज सुनने को मिला है उस पर सोचने के लिए अधिक समय देने की ज़रूरत है। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यापक रामाज्ञा ससिधर ने लोक और लोकविद्या के कुछ पहलुओं को उजागर करते हुए कहा कि त्यौहार में जो कर्मकांड आध्यात्मिकता को बढ़ाते हैं उनसे एतराज़ करने की ज़रूरत नही है। चित्रा सहस्रबुद्धे ने कहा कि वध के जश्न वाले त्यौहार होलिका दहन, दिवाली, दुर्गा पूजा आदि सार्वजनिक तौर पर देश भर में मनाना तो आज़ादी के बाद शुरू हुआ है। इसके पहले ये त्यौहार शायद भारत भर में प्रमुख त्यौहार के रूप में मनाए भी न जाते हो। हमें आज सोचना चाहिए कि क्या ये वध के जश्न में मनाए जाने वाले त्यौहार हमारे भारतीय होने की पहचान हैं या ये हाशिये के त्यौहार हैं?
सुनील सहस्रबुद्धे ने कहा कि त्यौहारों को सार्वजनिक क्षेत्र की संस्कृति पर एकाधिकार का औजार बनाना सर्वथा अनुचित है। अक्सर ऐसा एकाधिकार सांस्कृतिक उन्माद को जन्म देता है। जिस तरह लोकतंत्र में विपक्ष के बगैर लोकतंत्र ही नही रह जाता उसी तरह धर्म और संस्कृति आदि समाजोपयोगी भूमिका में रहें इसके लिए इतर दृष्टियों से समीक्षा और आलोचना का बड़ा महत्व है। भारतीय समाज में हमेशा से ये स्थितियां रही हैं, जो स्वराज की नियामक शक्तियों का काम करती रही हैं। आज़ादी के बाद से पूंजीवाद के त्वरित विकास के दौर में अर्थ से लेकर राजनीति और संस्कृति तक एकाधिकार की शक्तियों ने जोर पकड़ा।अलग-अलग मुखौटों में यह एकाधिकार बढ़ता चला गया। हमें उस सांस्कृतिक आंदोलन की ज़रूरत है, जो त्यौहारों को सांस्कृतिक एकाधिकार को चुनौती का एक औजार भी बना दे।
अंत में रामजनम ने अपने अध्यक्षीय भाषण में गोष्ठी को अत्यंत प्रासंगिक बताते हुए कहा कि हम खुद को और अपने समाज को सही ढंग से पहचान पाए और भविष्य को गढ़ने के न्यायपूर्ण मार्ग चुन सकें इसके लिए इन मुद्दों पर चर्चा होनी चाहिए।

विद्या आश्रम

 

विद्या आश्रम पर दर्शन वार्ता 12-14 अक्टूबर 2019

घोषणा के अनुरूप 12 – 14 अक्टूबर को विद्या आश्रम, सारनाथ में दर्शन वार्ता हुई। 

विचार के प्रमुख बिंदु रहे —- स्वायत्तता, न्याय, ज्ञान-पंचायत, लोकस्मृति, कला दर्शन, सामान्य जीवन, स्वराज, नारी-विद्या, संत परंपरा व शास्त्रीय दर्शन और लोक भाषा। दर्शन स्तर की समाज के लिए प्रासंगिक चर्चाएं हुईं। टेक्नॉलॉजी तथा मनुष्य निर्मित संस्थाओं और वर्तमान राजनीति के विकल्प के लिए भारतीय दर्शन परम्पराओं, ज्ञान और विवेक के संदर्भों में ठोस विचार सामने आए और उन पर चर्चा हुई। 

बंगलुरु में हाथ से उत्पादन उद्योग के पक्ष में चल रहे आन्दोलन ने हस्त उद्योग, रोज़गार और प्रकृति संरक्षण को केंद्र में रखते हुए ‘पवित्र आर्थिकी’ के पक्ष में आवाहन किया है. इसके लिए ग्राम सेवा संघ के सरगना एवं जाने-माने कलाकार प्रसन्ना एक अनिश्चितकालीन अनशन पर बैठ चुके है. इस आन्दोलन में कला क्षेत्र की पारंगत एवं जानी-मानी हस्तियाँ शामिल हुई हैं. कई लोग उनके साथ उनके समर्थन में एक दिवसीय अनशन पर रहे. बंगलुरु से आये मित्रों ने इस आन्दोलन के बारे में बताया. यह बात सामने आई कि न वाम और न दक्षिण पंथ के अंतर्गत आने वाले इस आन्दोलन की प्रेरणा के स्रोत गाँधी हैं. यह आन्दोलन दर्शन के स्तर पर समाज में हस्तक्षेप कर रहा है. सरकार से कुछ मांग नहीं रहा है बल्कि देशवासियों से एक बात कह रहा है. विद्या आश्रम की दृष्टि में यह बौद्धिक सत्याग्रह का प्रकट और सार्वजनिक रूप है. पवित्र आर्थिकी के विचार पर चर्चा हुई. तीन दिन की इस दर्शन वार्ता में  केरल से पी.के.ससिधरन, चेन्नई से सी.एन. कृष्णन व विद्या दुराई, बंगलुरु से जे.के.सुरेश, जी.एस.आर. कृष्णन, राजकुमारी कृष्णन, हैदराबाद से अभिजित मित्रा, मुम्बई से वीणा देवस्थली, नागपुर से गिरीश सहस्रबुद्धे, इंदौर से संजीव दाजीऔर अंजलि, इलाहाबाद से स्वप्निल और राजेश  कपूर, असम से संचारी भट्टाचार्य, बंगाल से देबप्रसाद, बंदोपाध्याय, रूपा व आखर और दिल्ली से अविनाश ने शिरकत की. वाराणसी से सुनील सहस्ररबुद्धे, रमण  पन्त, अरुण चौबे, प्रवाल सिंह,  फ़ज़लुर्रहमान अंसारी, लक्ष्मण प्रसाद, चित्रा,  प्रेमलता सिंह, आरती, गोरखनाथ, विनोद चौबे और अलीम, मऊ से अरविंद मूर्ति और उनके साथियों ने शिरकत की.  

पहले दिन इलाहाबाद से पीयूसीएल के राष्ट्रीय अध्यक्ष रविकिरण जैन और आजकल वाराणसी रह रहे न्याय के दार्शनिक पी.के.मुखोपाध्याय दर्शन वार्ता में शामिल हुए और समापन के दिन वाराणसी के वरिष्ठ समाजवादी और पत्रकार विजय नारायण जी शामिल हुए.

13 अक्टूबर को गंगाजी के किनारे राजघाट पर अपने दर्शन अखाड़ा पर सब जने बैठे। वातावरण निर्मल और सुकून भरा था तो ज़रूर, पर पूरब में थोड़े बादल होने से शरद पूर्णिमा का चंद्रोदय हम लोग नही देख सके। आधे पौन घंटे बाद थोड़ा ऊपर आया हुआ चाँद अपनी पूरी आभा के साथ दिखाई दिया। लोकविद्या जन आंदोलन के दर्शन और कार्यक्रम पर चर्चा हुई। इसके बाद सबको खीर खाने को मिली। गोरखनाथ जी का विशेष प्रबंध था।

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12 और 14 अक्तूबर को विद्या आश्रम में दर्शन वार्ता 

 

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13 अक्तूबर को गंगाजी के किनारे दर्शन अखाड़ा पर दर्शन वार्ता

 

Listening to Philosophers

Listening to Philosophers : Dialogue in Varanasi 

Venue : Vidya Ashraaaam, Sarnath and Darshan Akhada, Rajghat. 

Date : 12-13-14 October 2019 , Saturday, Sunday, Monday.

13th is Sharad Poornima 
All those interested are invited.

 

Introductory Remarks

When all politics is bereft of ideological considerations, there is need of a philosophical intervention. When ordinary life gets very muddled and moral imperatives fail to provide the criteria of resolution, philosophical intervention becomes imperative and inevitable.  The world today appears to be in the grip of changes which have no promise for a better world.

What is the contemporary philosophical scene which may come to rescue? Where do we look for philosophers, who we should like to listen to?

Where we look for may be – new epistemological foundations in the wake of the emergence of the virtual world, reflections on the human condition in the wake of the new forms of oppression let loose by the New Empire, debates on Climate Justice, culturally rooted thought on economics and politics, holistic thought as against piecemeal, art as preferred way of thinking over science, lokavidya darshan when organized knowledge is seen as hand maiden of the state, neighbourhood as primary form of social organisation and the like.

Every department of human life and social organization has undergone huge changes since the appearance of the internet and the world wide web, close to 30 years ago. Economics, politics, trade, social organization, finance, industry, education, science research and finally also ordinary life, everything has undergone great changes. Vidya Ashram has tried to look at these changes by its research, investigations and dialogues pertaining to the world of knowledge, particularly the flux in it. In the process it encountered radically different approaches for understanding the world which had different epistemological perspectives and pointed towards new ontological constructions. New languages and idioms can be seen emerging to enable these approaches to be true to their contexts including the emancipatory needs of the people – farmers, women, artisans, service providers, workers, students, adivasis and those in the market doing business with tiny capital. One would often find that these approaches do not accept the riders of logic, values and methods of modern science. Some of these approaches are broadly mentioned below.

  • The Rights of Mother Earth and buen vivir that emerged in some countries of South America like Bolivia, Ecuador and part Colombia.
  • Lokavidya Jan Andolan in India – an explicitly epistemological movement creating the concept of lokavidya.
  • European Students Movement against corporatization of education creating the idea of Cognitive Capitalism.
  • La Via –Campesina, an international farmers organization and movement focusing on Climate Change and Food Sovereignty – suggesting a Swaraj like reorganization of societal priorities.

There are explicit philosophical writings in the context of these movements and phenomena. There is also wide ranging philosophical reflection which is not rooted explicitly in these phenomena. They come from different ends like: primacy of art in life and understanding, reassertion and innovation of traditional ways of practice and understanding by the subaltern classes, new critique of Science focussing on Information Technology, Bio-technology, Nano-science and Cognitive Science, network focussed ontology, primacy of communication over production leading to fundamental changes in how history and science need to be viewed etc.

It is suggested that this note be shared with persons who may be interested in this, seek their views on it and if they would be willing to contribute to shape this dialogue with philosophers and among philosophers. This discussion needs to be very open both on content as well as form of this ‘listening to philosophers’. It can be conceived on a global scale with virtual and actual forms intertwined.

Vidya Ashram

 

 

 

सामान्य जीवन, समाज बोध और प्रगति के मानक

प्रेमचंद का भारतीय चित्रकला पर ‘ ज़माना ‘ के अक्टूबर, 1910 के अंक में छपे एक लेख से —

    “भारत की राष्ट्रीय जागृति का सबसे महत्वपूर्ण और शुभ परिणाम वे बैंक और डाकखाने नहीं हैं जो पिछले कुछ सालों से स्थापित हुए और होते जाते हैं, न वे विद्यालय हैं जो देश के हर भाग में खुलते जाते हैं बल्कि वह गौरव जो हमें अपने प्राचीन उद्योग-धंधों और ज्ञान-विज्ञान और साहित्य पर होने लगा है और वह आदर का भाव जिससे हम अपने देश की कारीगरी के प्राचीन स्मारकों को देखने लगे हैं.”

यह वही समय है जब आनंद कुमार स्वामी भारतीय कला पर चर्चा के मार्फ़त एक स्वदेशी समाज दृष्टि प्रस्तुत कर रहे थे. यह वही समय है जब गांधीजी ने हिन्द स्वराज के मार्फ़त स्वदेशी समाज बोध को आकार दिया. भारत तब फिर से अपने उन दर्शनों की ओर मुड़ रहा था जो स्वदेशी समाज बोध और लोकप्रिय व लोकहितकारी प्रगति के मानक गढ़ने के आधार देते थे.
आगामी रविवार, 28 जुलाई को दर्शन अखाड़ा पर इन्हीं बातों की चर्चा की जानी है . प्रेमचंद के मार्फ़त भारतीय दर्शन की लोकोन्मुख और लोकप्रिय समझ के समकालीन रुपों की तलाश की जानी है.